प्रजातंत्र की डकैतीः बहुजन नायक बनी बैंडिट क्वीन

नब्बे के दशक में मान्यवर कांशीराम जी ने मुझे ग्वालियर की जेल में फूलन देवी के पास जेल से नामांकन भरने के लिए मदद करने हेतु भेजा। कांशीराम उन्हें संसदीय चुनाव में बसपा उम्मीदवार के रूप में उतारना चाहते थे। मुझे लग रहा था कि चूंकि फूलन देवी अभी भी जेल में थी इसलिए मुझे उनके चुनाव प्रबंधन के लिए भी कहा जाएगा। अतः उन्हें जानने के ख्याल से मैंने माला सेन की किताब इंडियाज़ बैंडिट क्वीन: द ट्रू स्टोरी ऑफ़ फूलन देवी की एक प्रति खरीदी। शेखर कपूर इस कहानी पर एक फ़िल्म बनाने जा रहे थे। कपूर और सेन का इसमें निजी लाभ था और इस लाभ के लिए उन्होंने बहुत सारी सच्चाइयों को छिपाया भी था। इस बारे में अरुंधती राय ने ठीक भविष्यवाणी (फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद) की थी जिसके कारण 2001 में फूलन देवी की दुखद हत्या की गई। हालाँकि जब मैंने इंडियाज़ बैंडिट क्वीन पुस्तक पढ़ी तो मैंने पाया कि इस पुस्तक में पिछड़ी जातियों और महिलाओं के बारे में इतनी सारी हकीकतों का बयां था कि मुझे लगने लगा कि इस पुस्तक को हाई स्कूल स्तर पर सभी विद्यार्थियों को पढ़ाना चाहिए। इसने मुझे समझने में मदद की कि क्यों सारे पिछड़े लोग फूलन देवी में देवी दुर्गा की प्रतिमा देख रहे थे और क्यों सेकुलर मीडिया का एक हिस्सा उनको महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली देवी समझ रहा था। दमन का मतलब होता है हमारे मनोबल को तोड़ना। एक नायक इसलिए इस दमन का विरोध करता कि टूटे हुए मनोबल को वापस लाया जाए। फूलन देवी उत्पीड़ित मनोबल को वापस लाने वाली नायिका थी। जैसा कि हमें फ़िल्म में जेम्स बॉण्ड को लड़ाई कर मनोबल वापस लाते देखते हैं।

दुर्भाग्यवश उनकी वीरता को वही संस्कृति परिभाषित कर रही थी जिसने हमें पिछड़ा बनाया हुआ है। हमें फूलन देवी के साथ बात करके उसकी सच्ची वीरता के बारे में जानने का अवसर नहीं मिला। ग्वालियर जाने पर मुझे बताया गया कि जिस आदमी को फूलन देवी का नाम वोटर के रूप में दर्ज कराने की ज़िम्मेवारी दी गई थी उसने समय पर काम नहीं करवाया इसलिए फूलन का नामांकन संभव नहीं हो पाया। बाद में मुझे पता चला कि मान्यवर मुलायम सिंह यादव के कुछ लोग उनको समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बनाना चाहते थे। उन्होंने समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बनना पसंद इसलिए किया कि समाजवादी पार्टी की उस समय लखनऊ में सरकार थी जो कि उन पर चल रहे 48 मुकदमों को वापस ले सकती थी। इन मुकदमों में वह कुख्यात मुकदमा भी था जिसमें 14 फरवरी 1981 में उन्होंने बेहमई गाँव में 22 ठाकुरों की हत्या कर दी थी। यह वही गाँव था जहाँ उनके साथ ठाकुरों ने तथाकथित रूप से सामूहिक बलात्कार किया था।

चूंकि बहुत सारे पिछड़े वर्ग के लोग फूलन देवी की पूजा दुर्गा के रूप में कर रहे थे, कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने माला सेन और शेखर कपूर की तरह ही लोगों की भावनाओं को अपने फ़ायदे के लिए भुनाया। उनमें से किसी ने यह नहीं पूछा कि क्या फूलन देवी को किसी ने सुधारा? हालाँकि हम लोगों में से कोई भी उनको दोष नहीं दे सकता क्योंकि वे लोग भी उसी धार्मिक-सेकुलर संस्कृति की रचना हैं जो चंबल के डाकुओं और दिल्ली, लखनऊ तथा बॉलीवुड के डकैतों को पैदा करते हैं। कौन किसी से पूछता है कि हम उन लोगों को वोट क्यों दे रहे हैं जो हमारे राष्ट्रीय, राज्य, महानगर और गाँव की तिजोरियों से हमारे नाम पर रुपये लूट रहे हैं।

पिछड़े वर्ग के लोग फूलन देवी की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्होंने ठाकुरों से बर्बर बदला लिया। इसी प्रकार सेकुलर लोगों ने उन्हें एक वीरांगना इसलिए बना दिया क्योंकि उन्होंने पुरुषों से बदला लिया। समस्या यह है कि ठाकुरों ने शुरू में फूलन देवी को उत्पीड़ित नहीं किया था।

पिछड़े लोग उस समय चुपचाप थे जब उसके चाचा बिहारी लाल और चचेरे भाई मायादीन ने दस्तावेज़ों में हेर-फेर करके ज़मीन का पट्टा अपने नाम करवा लिया था और उन्हें परिवार सहित घर से बेदखल कर दिया था। उस समय उन्हें गाँव के बाहर एक छोटी-सी झोपड़ी में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा। फूलन एक छोटी बालिका थी परंतु उन्होंने नायिका की तरह अपनी चचेरी बहन को घर से खदेड़ दिया और उन्हें खेतों में होरा फलियों को खाने को मजबूर होना पड़ा। तब उनके चचेरे भाई मायादीन ने लड़कियों को घर से बाहर भगा दिया। उस समय मायादीन की उम्र सिर्फ़ 20 साल थी। फूलन को जब उसने ज़मीन वापस नहीं दिया तो फूलन ने उसके दावे को खारिज कर दिया और ईंट मारकर उसे बेहोश कर दिया। यह बहादुराना काम था।

उसकी जाति के लोगों ने तब भी खामोश रहना पसंद किया जब मायादीन ने मज़दूरों को भेज कर उनके पिता के नीम के पेड़ को काट डाला। उनके पिता ने विरोध करना बेहतर नहीं समझा परंतु हमारी 11 वर्ष की नायिका फूलन ने उस समय भी विरोध किया। वह वहाँ धरने पर बैठ गई और मायादीन को चोर कहकर ललकारने लगी। इसकी सज़ा उन्हें मिली। मायादीन ने उसकी शादी पुत्तीलाल से करवा दी जिसकी उम्र उनसे तीन गुनी थी तथा उनके माता-पिता से कई मील दूर पुत्तीलाल का घर था। पुत्तीलाल की जाति के लोगों ने न उनकी परवाह की, न न्याय की परवाह की और न ही बाल विवाह निरोधक कानून की परवाह की। उनके पति पुत्तीलाल (और बाद में उसकी दूसरी पत्नी विद्या) ने उनकी कमज़ोरी का पूरा फ़ायदा उठाया। उनके परिवार और जाति के लोगों ने तब भी उन के साथ न्याय और दया नहीं की जब वह प्रताड़ित औरत के रूप में अपने घर आई। उनकी जाति के मुखिया मायादीन “चोर” ने 1971 में उस पर चोरी का इलज़ाम लगाया और उन्हें थाने में बंद करवा दिया जहाँ उनके साथ बलात्कार और उत्पीड़न हुआ।

फूलन की रीढ़विहीन जाति ने उस छोटी-सी बच्ची को ज़रा-सा भी ख्याल नहीं रखा और इसलिए जब वह फिर से दुर्गा के रूप में आई तो अपने पूर्व पति पुत्तीलाल और दोस्त मल्लाह को उसके बदले का पहला शिकार बनाया। नारीवादी लोग इस बात को आसानी से भूल जाते हैं कि फूलन ने अपने पूर्व पति की दूसरी पत्नी विद्या से भी बदला लिया था। फूलन उससे ज़्यादा नफ़रत करती थी तथा उसने खुद स्वीकार किया था कि वह विद्या और पुत्तीलाल दोनों की हत्या करना चाहती थी परंतु बाद में उसने उन दोनों की हड्डियाँ तोड़ने का फ़ैसला किया ताकि वे दोनों ज़िंदा रहें जिससे लोग देख सकें कि किस तरह फूलन ने अपने अपमान का “बहादुराना” बदला लिया। दो ठाकुरों ने फूलन देवी की हत्या कर दी। हालाँकि वह एक नायिका थी परंतु वह सिर्फ़ बदला लेना जानती थी न कि मुक्ति देना।

पर्याप्त रूप से मज़बूत सांस्कृतिक बुनियाद के अभाव के बावजूद प्रजातंत्र हम लोगों को जो सर्वश्रेष्ठ चीज़ प्रदान कर सकता है वह है दलितों और पिछड़ों को सत्ता देना परंतु सत्ता हमारी रक्षा नहीं करती जैसा कि लॉर्ड ऐक्टन ने कहा है सत्ता भ्रष्ट बनाती है और सर्व सत्ता संपूर्ण भ्रष्ट बना देती है। इसलिए महात्मा जोतिबा फुले विश्वास करते थे कि आगे विकास करने के लिए भारत को पिछड़े लोगों को खुद सत्ता की चाहत करने वाले नेताओं की ज़रूरत नहीं है बल्कि वीर रक्षक की आवश्यक्ता है जो बलिराजा जैसा खुद का बलिदान देने वाला महान योद्धा हो, जिसे जोतिबा ने यीशु मसीह का प्रतिरूप कहा है। यीशु मसीह (जिनका 2000 वर्ष पहले जन्म हुआ था और 25 दिसंबर को जिनका जन्मदिन मनाया जाता है) एक अच्छे चरवाहे थे जिन्होंने निस्सहाय भेड़ों की रक्षा के लिए खुद को बलि पर चढ़ा दिया। उन्होंने अत्याचारियों के अत्याचारों को खुदे के ऊपर ले लिया और अत्याचारियों को माफ़ी देने तथा उनके हृदय परिवर्तन की माँग की। वे फूलन देवी की ही तरह इस पृथ्वी पर न्याय स्थापित करने के लिए आए थे। वे अत्यचारी राजाओं के खिलाफ़ उठ खड़े हुए थे। यीशु मसीह न्याय के प्रति निर्भीक थे परंतु उनकी बहादुरी एक अलग प्रकार की थी जो अपने दुश्मनों और बद्दुआ देने वालों को भी प्यार और आशीर्वाद देने की शक्ति रखती थी। यीशु मसीह के न्याय के सिद्धांत के अंतर्गत राष्ट्रीय कुशलता और शांति शामिल थी … जैसा कि हम लोगों ने अपने जीवन काल में ही दक्षिण अफ़्रीका में देखा कि यह देश रंगभेद के कारण अन्याय और जातिगत नफ़रत से विखण्डित था परंतु यीशु मसीह ने अपने सेवकों की एक टुकड़ी तैयार की जिसने “घायल और बुझते हुए लोगों” की सेवा की, जैसा कि 11 साल की इस छोटी मल्लाह लड़की ने की थी। आगे विकास करने के लिए यह ज़रूरी है कि हमारे पास खुद को बलिदान कर देने वाले नौकर नेताओं की ज़रूरत है जो कि प्रभु यीशु मसीह की तरह अच्छे चरवाहे हों।

(फॉरवर्ड प्रेस के दिसंबर 2009 अंक में प्रकाशित लेख का संशोधित संस्करण)

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गाँधी से राहुल – देश का नेता कैसा हो?

विशाल मंगलवादी

यह क्राँतिकारी विचार कि शासक मालिक नहीं बल्कि सेवक होता है यूरोप में तब विकसित हुआ जब उन्होंने मैकियावेली की मानसिकता का त्याग किया।

राहुल की गाँधीगिरी

21 अगस्त 2010 को कतार में लगे प्रधानमंत्री, 40 वर्षीय राहुल गाँधी ने जिस राजनीतिक समझ का परिचय दिया वह बहुत ही प्रभावशाली था। मूसलाधार बरसात में 110 किलोमीटर गाड़ी चला कर वे उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने अचानक अवतरित हुए। ये किसान असंतुष्ट थे क्योंकि यूपी की सरकार उनकी रोज़ी-रोटी के एकमात्र साधन – उनकी उपजाऊ ज़मीनों – का अधिग्रहण कर रही थी। सरकार 165 किमी लंबे यमुना एक्सप्रेसवे के निर्माण की योजना बना रही है ताकि नौएडा से आगरा (ताजमहल) की दूरी को 90 मिनटों में पूरा किया जा सके। किसान कमतर और असमान मुआवज़े को लेकर नाराज़ हैं – वे जीविका के अपने पुश्तैनी स्रोत को खो देंगे, लेकिन जबतक उन्हें रोज़ी-रोटी के नए साधन मिलें तबतक की बीच की मियाद के लिए यह मुआवज़ा उनके लिए पूरा नहीं पड़ेगा। यह सड़क पर्यटन, व्यापार और उद्योग को बढ़ावा देगी, लेकिन फ़ायदा उन्हीं को होगा जिनके पास संसाधन हैं। जो पहले से ही गरीब हैं वे अपनी रोज़ी-रोटी के साधन ही खो देंगे।

उत्तर प्रदेश के किसान सरकार से खफ़ा हैं

अजीत सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के एकमात्र समर्थक बनकर उभरते, उससे पहले ही राहुल ने कुछ श्रेय अपने नाम करके मीडिया और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को हैरत में डाल दिया। और साथ ही जब वह पुलिस फ़ायरिंग में मारे गए दो निर्दोष दलितों के परिवारों से मिलने गए तो मुख्यमंत्री मायावती के दलित आधार में कुछ चोट भी पहुँचा आए।

इससे पहले राहुल और उनकी माँ, श्रीमती सोनिया गाँधी – सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की चौथी बार बनी शक्तिशाली अध्यक्ष – ने ओड़िशा के आदिवासियों का पक्ष लिया था जो (माओवादियों के समर्थन से) बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता द्वारा उत्खनन के लिए अपनी ज़मीनों के अधिग्रहण करने की कोशिशों का विरोध कर रहे थे। आधुनिक विकास के शिकार लोगों का समर्थन करने के द्वारा राहुल यह सुनिश्चित कर रहे थे कि जब उनकी प्रधानमंत्री मनमोहन के नेतृत्व वाली सरकार नए भूमि अधिग्रहण कानून को पास करेगी तो वह उन्हें चुनावों में कोई नुकसान न पहुँचा पाए। वह यह उम्मीद कर रहे हैं जब गरीबों को उनकी ज़मीनों को छोड़ने के लिए मजबूर कर ही दिया  जाएगा तो पर्यावरण संरक्षक और वैश्विक मीडिया उन्हें सकारात्मक ढंग से पेश करें।

राहुल गाँधी एक सार्वजनिक हस्ती हैं जिनके निजी विचार और नीतियाँ अभी भी रहस्य बनी हुई हैं। संभावना के तौर पर वे हमारे राष्ट्रीय जीवन के अगले तीन दशकों को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए उनके मन के राज़ की पड़ताल करना दिलचस्प होगा।

*  *  *

देश का नेता कैसा हो?

कल्पना करें कि यूपी से अपनी विजयी दौरे से वापिस आते हुए राहुल महात्मा गाँधी की ताज़ा जीवनी के कुछ पन्ने पढ़ रहे हैं, लेकिन उन्होंने पाया कि वह बहुत थक चुके हैं। इसलिए उन्होंने यह देखने के लिए टीवी चलाया कि मीडिया उनके दौरे को कैसे कवर कर रही है। जिस चीज़ को देखकर वह सबसे ज़्यादा खुश हुए वह उनके अनुयायियों का यह राग – “ देश का नेता कैसा हो? राहुल गाँधी जैसा हो।” लेकिन जब उन्होंने चैनल बदला तो उत्तर प्रदेश के एक अन्य हिस्से में हो रही घटना को देखकर झुँझला गए। मायावती अपने गुरु काँशीराम के एक बुत का अनावरण कर रही थीं और एक दूसरी तथा अत्यधिक बड़ी भीड़ यह नारा लगा रही थी “देश का नेता कैसा हो? मायावती जैसा हो।”

उनींदे राहुल ने जीवनी, जो अभी भी उनके हाथ में थी, के आवरण पृष्ठ पर बापू के चित्र को एकटक देखते हुए एक गहरी साँस ली और महात्मा से बुदबुदाते हुए पूछा:

देश का नेता कैसा हो, बापू!

भारत को किस प्रकार के नेता या अगुवे की ज़रूरत है?

नींद में जाते हुए उन्होंने महसूस किया जैसे बापू की मुस्कान जीवंत हो रही है। बल्कि बापू का प्रेत किताब से निकल के आ रहा है और उनके बिस्तर पर बैठ गया। और एक ऐसी करुणामय दृष्टि के साथ जो एक दादा अपनी बाँहों में सोते बच्चे पर डालता है राहुल कि ओर देखा।

बेटा, बापू ने कहा, तुम महान पैदा हुए, मायावती ने महानता अर्जित की और महानता तुम्हारी माँ पर थोप दी गई। उन्होंने अपनी ताकत को कमोबेश समझदारी से इस्तेमाल किया है। मायावती और तुम अपनी ताकत के साथ क्या करोगे यह देखना अभी बाकी है। भारत में तुम्हारा अधिकांश योगदान ऐसी परिस्थितियों में होगा जिनपर तुम्हारा कोई वश नहीं, लेकिन इतिहास मायावती और तुम्हें उन चुनावों के आधार पर आँकेगा जो तुम करोगे। तुम्हारे निजी और सार्वजनिक फ़ैसले तुम्हारे भीतरी चरित्र की ताकत या कमज़ोरी को दर्शाएँगे।

लेकिन मायावती भ्रष्टाचार में इतनी लिप्त है! राहुल को अपने आप को उसी श्रेणी में रखा जाना पसंद नहीं आया।

दुर्भाग्यवश, महात्मा ने कोमल स्वर में कहा, सच्चाई यही है कि अगर तुम्हारे परिवार को यह श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने भारत माता को एक प्रजातंत्र के रूप में बचाए रखा है, तो उसे भारत के सार्वजनिक जीवन के नैतिक पतन का दोष भी स्वीकार करना होगा।

क्या आप सचमुच ऐसा सोचते हैं कि मेरा परिवार भारत के एक सफल प्रजातंत्र बने रहने की कुंजी है? राहुल ने बातचीत को एक खुशनुमा मोड़ देने की कोशिश की।

बेशक! महात्मा ने कुछ टेढ़ी मुस्कान के साथ कहा। जो “विचारधाराएँ” हमारी दो-गठबंधन प्रणाली को परिभाषित करती हैं वह सत्तारूढ़ वंश के लिए निष्ठा या नफ़रत ही हैं। इसके अलावा हमारा राजनीतिक वर्ग सत्ता के लालच के अलावा किसी और चीज़ से प्रेरित नहीं है।

क्या राजनीति मात्र सत्ता के लिए नहीं?

लेकिन क्या राजनीति केवल सत्ता ही के लिए नहीं होता उसे पाने और फिर बरकरार रखने के लिए?

मैकियावली ने अपनी पुस्तक द प्रिंस में यही सीख दी थी। एक इतालवी कूटनीतिज्ञ होने के नाते वह 15वीं सदी के कई यूरोपियाई शासकों का अध्ययन करने के योग्य थे, उनका भी जो सफल थे और उनका भी जिन्होंने सत्ता गवाँ दी। उन्होंने प्राचीन शासकों और राजनीति शास्त्रियों का भी अध्ययन किया और ऐसी राजनीति का सबक दिया जो हम अपने खुद के चाणक्य से सीख सकते थे। हमारे शासक राजनीतिक सत्ता पाने और बरकरार रखने की कला में माहिर थे। बेटे तख्त पाने के लिए नियमित तौर पर अपने पिताओं और भाइयों का कत्ल करते थे। कैकयी भी राम को वनवास में भेजने और अपने बेटे को अयोध्या का राजा बनाने में सफल हुई थी। त्रासदी तो यही है कि तुम्हारे वंशावादी शासन के दौरान, हालाँकि उसके कारण नहीं, भारतीय राजनीति का अपनी पारंपरिक, मैकियावलीवादी समझ में पतन होता जा रहा जिसके अनुसार राजनीति केवल सत्ता है और सिद्धांत केवल सत्ता को पाने के साधन।

लेकिन अगर सत्ता नहीं तो फिर राजनीति किस बाबत की जाए?

मुझे यकीन है कि तुमने अपने पड़दादा के भाषण सुने होंगे। जवाहर ने कभी भी राष्ट्र को यह सिखाने का मौका नहीं गँवाया कि वह उनका पहला सेवक है – क्योंकि अँग्रेज़ी शब्द प्राइम मिनिस्टर का शाब्दिक अर्थ यही है।

यह क्राँतिकारी विचार कि एक शासक को सेवक होना चाहिए यूरोप में तब विकसित हो पाया जब उन्होंने मैकियावली की मानसिकता का त्याग कर दिया। फ़्राँस के ह्यूगनॉट्स से  शुरू करके, स्कॉटिश, अँग्रेज़ और डच सुधारकों ने यह पूछना आरंभ किया – ईश्वर किस तरह के शासक चाहते हैं? उन्होंने इस सवाल के साथ बाइबल को पढ़ना शुरू किया क्योंकि उनका यह विश्वास था (बाकि बातों के अलावा) कि बाइबल यहूदी और विश्व इतिहास पर ईश्वर का दृष्टिकोण है। जब उन्होंने ईश्वर के दृष्टिकोण से राजनीति को सीखने का फ़ैसला किया तो उन्होंने यह समझना शुरू किया कि यीशु मसीह और उनकी शिक्षा कि धर्मभ्रष्ट शासक, यूरोपीय भी, अपनी प्रजा पर प्रभुत्व जमाते हैं। लेकिन ईश्वर एक नए राज्य का आगाज़ कर रहे थे जिसमें जो भी महान बनना चाहता है उसे सेवक बनना होगा। यीशु ने कहा कि हालाँकि वे यहूदी मसीहा हैं, वह सेवा करवाने नहीं बल्कि सेवा करने और दूसरों की मुक्ति के लिए अपना जीवन देने आए हैं। इसीलिए क्रूस (सलीब) जिसपर उन्होंने अपने प्राण दिए आत्मबलिदानी सेवा का सबसे सशक्त बैश्विक प्रतीक बन गई।

जवाहर एक इतिहासकार था और वह सौभाग्यशाली था कि इंग्लैंड में वह अगुवाई (नेतृत्त्व) और शासन पर बाइबल की सीख की सुंदरता देख पाया। उसकी गलती यह थी कि उसने यह सोच लिया कि राजनीति को सच्ची रुहानियत से अलग किया जा सकता है। उसने सोचा कि ईश्वररहित सेकुलरावादी सेवक-अगुवे पर मसीह की शिक्षा के राजनीतिक पहलु पर अमल कर पाएँगे। लेकिन सच्चाई यह है कि यीशु की सीख अभी भी हमारी सँस्कृति में अनजानी है। मैकायवली के बाद यूरोप के कई राष्ट्रों ने राजनीति की ‘यथार्थवादी’ समझ को खारिज कर दिया और एक एशियाई किताब – बाइबल – को राजनीति को परिभाषित करने की अनुमति दी। हम दूसरी सँस्कृति से सीखने के मामले में बहुत ही घमंडी रहे हैं, इसलिए चाहे हमने ब्रितानी लोकतंत्र को अपना लिया है, हमने उस रुहानियत के प्रति अपने दिलों को बंद कर लिया है जिसके आधुनिक प्रजातंत्र सुचारु रूप से काम करता है। तुम क्या सोचते हो कि अगर किसी दुर्घटनावश तुम्हारे परिवार को हटा दिया जाए तो भारतीय प्रजातंत्र का क्या होगा?

कांग्रेस पार्टी तो निश्चित रूप से टुकड़े-टुकड़े हो जाएगी।

साथ ही कांग्रेस पार्टी का विरोध भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। दो-गठबंधन की प्रणाली कुछ स्थिरता दी है और प्रजातांत्रिक सफलता का एक वहम निर्मित किया है वह ध्वस्त हो जाएगी। वह  प्रजातंत्र कितना मज़बूत हो सकता है जो अपने जिंदा रहने के लिए एक वंश पर निर्भर करता है? हिंदुत्व पार्टी ने कुछ ठीक काम किए हैं, लेकिन उसमें इस नम्रता की कमी है कि वह यह मान ले कि जिस प्रकार यूरोप में धर्मसुधार, रेफ़रमेशन, की आवश्यकता थी, वैसी भारत में भी है। सच्ची सफलता के लिए, भारतीय प्रजातंत्र को परिवर्तन की आवश्यकता न कि उसकी अनैतिक सँस्कृति को बचाए रखने की। तुम इस बात के लिए आभारी हो सकते हो कि तुम्हारे परिवार ने एक भूमिका अदा की है, लेकिन तुम्हें भारत को असल में बदलने के लिए भीतर के  अति विशाल रुहानी संसाधनों की आवश्यकता है।

बापू! मेरे कई शिक्षक यह कहते हैं कि पंडितजी ने पूरे तौर पर आपका अनुकरण नहीं किया क्योंकि उन्हें लगता था आपके आदर्शवाद की कुछ बातें सनकभरी हैं।

जवाहर ने मेरी सभी बातें नहीं मानी

वह सही कहते हैं और जवाहर भी। मैंने कई सनकभरी बातें सोची और कई मूर्खतापूर्ण कार्य किए। इसलिए कोई सनकी ही मेरी कही और की गई हर बात का पूरी तरह से अनुकरण करेगा। लेकिन तुम्हारे समझदार संशयवादी पड़दादा ने मेरा अनुकरण किया, हर चीज़ का त्याग किया, कई वर्ष जेल में बिताए और राष्ट्र के लिए जान देने को तैयार हुए क्योंकि वे जानते थे कि न तो मैं और न ही कांग्रेस पार्टी जिसकी अगुवाई मैं करता था भ्रष्ट हैं। मिशनिरियों के कारण, हमारे चरित्र को मैकायवली, चाणक्य और भारतीय देवी-देवताओं ने नहीं बल्कि बाइबल ने आकार दिया था। और यही बात तब की और आज की कांग्रेस पार्टी के फ़र्क को बयान करती है।

मायावती ने महानता अर्जित की है

आप एक वकील के तौर पर प्रशिक्षित हुए थे, इसलिए मैं तो आपसे बहस करने की कोशिश भी नहीं कर सकता। खैर, भारत के नैतिक पतन के बारे में आपकी टिप्पणियाँ बदकिस्मती से सच ही हैं। मायावती के नीचे आज यूपी सरकार जितनी भ्रष्ट है पहले कभी नहीं रही और देखो उस चैनल पर हमारे लोग यही राग अलाप रहे हैं “देश का नेता कैसा हो? मायावती जैसा हो।”

यह जीतने और हारने का मसला नहीं है। सवाल यह है क्या तुम मायावती से अधिक चतुर राजनीतिज्ञ बनना चाहते हो या गुणत्ता के हिसाब से अलग और बेहतर?

आप कहना क्या चाहते हैं?

आज यूपी में जो नाटक तुमने खेला वह काबिलेतारीफ़ था। तुम मायावती, मुलायम और अजीत को मात दे सकते हो। उससे तुम प्रधानमंत्री बन जाओगे, लेकिन यह भारत को नहीं बदल पाएगा।

राहुल से गाँधी: सेवक-अगुवाई पर अमल कर के देखो

तो, आपका क्या लगता है मुझे क्या करना चाहिए?

क्या तुम वाकई मुझ से सलाह चाहते हो?

बेशक। मैं जानना चाहता हूँ कि भारत का नेता या अगुवा किस तरह का होना चाहिए।

तुम मुश्किल में पढ़ जाओगे, बेटा। लेकिन क्योंकि तुम पूछ रहे हो, मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम भारत को बदलने के लिए क्या कर सकते हो। अगर तुम्हें वाकई यूपी में व्याप्त भ्रष्टाचार, प्रदूषण और गरीबी की परवाह है तो मतदाताओं से आवेदन करो कि वे तुम्हें यूपी के मुख्यसेवक के रूप में नियुक्त करें।

यह तो सनकभरा विचार है। हमारी पार्टी यूपी में कैसे जीत सकती है? हम चौथे पायदान पर हैं बसपा, सपा और भाजपा के पीछे।

तुम बिना लड़े ही यूपी को जीत सकते हो। अपने आप को नम्र बनाओ। मायावती को एक ईमानदार, सार्वजनिक प्रस्ताव दो कि उन्हें भारत की अगली प्रधानमंत्री बनने में जो बन पड़ेगा तुम करोगो। उसके बदले तुम यूपी का मुख्यसेवक बनने के लिए उनकी सहायता माँगो। उनसे कहो कि तुम यूपी विधानसभा के लिए सर्वोत्तम प्रत्याशियों को चुनोगे, बिना उनकी जाति और मौजूदा पार्टी संबंधों पर ध्यान दिए। वह तुम्हारे और तुम्हारी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करे और तुम राष्ट्रीय चुनावों के दौरान उनके लिए प्रचार करो। उनसे और यूपी की जनता से कहो कि आप चाहते हैं कि यूपी आपको सिखाए कि शासन कैसे करना है। जब तुम यूपी में अपने आपको साबित कर चुके होगे तो फिर राष्ट्र से कह सकते हो कि वह तुम्हें अपने पहले सेवक के रूप में सेवा करने का अवसर दे।

बापू आप जानते हैं, कि कांग्रेस पार्टी कभी भी मुझे यूपी का मुख्यमंत्री बनने की अनुमति नहीं देगी। अगर मैं वहाँ असफल हो गया तो यह सारी पार्टी को नुकसान पहुँचाएगा।

तुम कांग्रेस पार्टी के अनुयायी हो या अगुवे? क्या तुम राजनीति में अपनी पार्टी के सदस्यों के हितों की सेवा के लिए आए हो? यूपी को साफ़ करने की ज़िम्मेवारी लेकर, तुम खेल बदल सकते हो, एक ऐसे राजनीतिज्ञ के रूप में जो मायावती ही नहीं बल्कि तुम्हारे अपने पिता और दादी से भी अलग है। एक ही चोट से तुम अपने वोट बैंक भी वापिस पा लोगे, जिनमें दलित भी शामिल हैं, जिन्हें कांग्रेस के पाखंड के कारण खोना पड़ा था।

(फॉरवर्ड प्रेस के अक्तूबर 2010 अंक में प्रकाशित)

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आपराधिक पूँजीवाद के खिलाफ़ पिछड़ों–माओवादियों की जंग

विशाल मंगलवादी

शनिवार, 12 जून 2010 को सुबह दस बजे थलसेना द्वारा प्रशिक्षित और समर्थन-प्राप्त विशेष बलों ने झारखंड – उड़ीसा सीमा पर एक पहाड़ी की चोटी, जो एक माओवादी शिविर बन चुकी थी, को कब्ज़े में करने के लिए एक विशाल ऑपरेशन ब्लैक हॉक की शुरुआत की। सोलह घंटों से अधिक चली बंदूकों, ग्रेनेडों और मोर्टारों की जंग के बाद रविवार शाम चार बजे इंडिया इंक[1] ने अपनी जीत की घोषणा की, यह दावा करते हुए कि 300 माओवादी शिविर छोड़ कर भाग चुके हैं। भारतीय बलों ने चिकित्सीय सहायता पहुँचाने के लिए अपने घायलों के हवाई जहाज़ के द्वारा उठाया, यह मानते हुए कि उनका एक जवान हताहत हुआ है और – बिना की सबूत के – यह कहते हुए कि माओवादी अपने मृतकों को अपनी पीठ पर उठा कर ले गए होंगे। न कोई तस्वीर पेश की गई और न ही कोई शव बरामद हुआ।

चार दिनों बाद, पश्चिम बंगाल में एक अन्य ऑपरेशन में, हमारे विशेष बलों के नायक माओवादियों का सफल शिकार कर के वापिस लौटे, एक बल्ले पर जंगली सूअर की तरह एक युवा भारतीय स्त्री का शव उठाए।

थलसेना ने अपना इरादा घोषित कर दिया है कि वे सीधे तौर पर शामिल नहीं होंगे – कम से कम फ़िलहाल तो नहीं। सबसे पहले, सोनिया गांधी ने विधवा होने की पीड़ा से कुछ सबक तो लिया है। ऐसा लगता है कि वे समझती हैं कि जिसने उनके पति की हत्या की वह कोई बमधारी स्वघाती तमिल स्त्री नहीं थी परंतु सत्ता का अहंकार था। तमिल टाइगरों से श्रीलंका को बचाने के लिए भारतीय थलसेना के प्रयोग में उन्होंने अपनी जान गंवाई। तमिल टाइगरों ने भारतीय थलसेना को पर्याप्त रूप से अभिमानरहित किया और हमारे आला सेना अधिकारियों को यह समझ आ गई कि कोई भी सेना गरीबों के खिलाफ़ यह जंग नहीं जीत सकती। हज़ार मील से लंबे भूभाग में आज़ादी से घूम रहे एक लाख माओवादियों से लड़ने के लिए सेना को कम से कम पाँच लाख लोगों को तैनात करना होगा। इसके जवाब में, माओवादियों को कुछ और नहीं करना सिवाय इसके कि एक हेलिकॉप्टर को मार गिराएं और फिर शहरों में अपने संबंधियों के पास चले जाएं, सामान्य लोगों की तरह जीते हुए, जब तक कि सेना को कश्मीर, पूर्वोत्तर या उत्तर पश्चिम में उनके बैरकों में वापिस न भेज दिया जाए। इस दौरान, हमारे वीर सैनिक निर्दोष नागरिकों को तंग करेंगे, उनकी हत्या और बलात्कार करेंगे और सीएनएन-आईबीएन के रिपोर्टर उनका पीछा करते हुए पूरी दुनिया के लिए भयावह घटनाओं को इकट्ठा करेंगे।

सेना की कार्यवाही की बहुपक्षीय कीमत असाधारण रूप से विशाल होगी। हमारी सरकार अपने पूँजीवादी मित्रों (जो भारत और अमेरिका में सांसदों को खरीदना जानते है) को माओवादी नेताओं को खरीदने और उन्हें हमारे विधायक, सांसद और मंत्री बना देने के लिए कहेगी। कई माओवादी अगुवे ऐसे प्रस्तावों को स्वीकार करने के बारे में सोचेंगे अगर उनके कई कॉमरेडों की जंगली सूअरों की तरह उठाए जाने वाली तस्वीरें कैमरे पर दिखाई जाएंगी। पर यह समझने के लिए किसी कल्पना की ज़रूरत नहीं कि इस प्रकार का समाधान केवल अगले चुनाव तक ही काम करेगा। कॉमरेड अपने “बिक्री के लिए” नेताओं को गद्दार घोषित कर देंगे और खाली पदों को और अधिक प्रतिबद्ध क्रांतिकारियों से भर देंगे।

आपराधिक पूँजीवाद के खिलाफ़ मामला

पिछले आम चुनाव के दौरान, श्री एल के आडवाणी ने यह वायदा किया था कि अगर देश उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट करता है तो वे गुप्त स्विस खातों में छिपे 14 खरब डॉलर के लगभग काला धन वापिस भारत ले आएंगे। अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी (एफबीआई) के अनुमान अनुसार ऐसे ही खातों में गरीब अमरीकियों के केवल 14.5 अरब डॉलर ही पड़े हैं। यह अंतर दर्शाता है कि भारत का हिंदू पूँजीवाद, अमेरिका का सेक्युलर पूँजीवाद और मसीही (ईसाई) पूँजीवाद एक दूसरे से एकदम अलहदा सामाजिक-आर्थिक तंत्र हैं। हिंदू पूँजीवाद से मेरा अर्थ है एक ऐसा “मुक्त बाज़ार” तंत्र जो लक्ष्मी की पूजा करता है और धन अर्जन की कोशिशों से ही अपने नैतिक मूल्यों का निर्धारण करता है। यह एक ऐसा आर्थिक तंत्र है जो पवित्र परमेश्वर द्वारा नियंत्रित नहीं है जिनकी यह आज्ञा है कि “तू लालच न कर”, न चोरी कर, न हत्या कर। इस पद, हिंदू पूँजीवाद, का अर्थ यह नहीं कि प्रत्येक हिंदू व्यवसायी कानून तोड़ने वाला है या मुसलमान, ईसाई या बौद्ध आपराधिक पूँजीवाद का व्यवहार नहीं करते। यह पद हमारे वर्तमान आर्थिक तंत्र का बयान करता है जो भारत के हिंदू मूल्यों से उपजा है और जो इस बाइबल-आधारित विचार को खारिज करता है कि परमेश्वर पवित्र हैं तथा उनके नैतिक नियम हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होते हैं, इस बात पर भी कि हम किस प्रकार पैसा कमाते या उसे खर्च करते हैं।

गुप्त स्विस खातों में जमा ये 14 खरब डॉलर हिंदू पूँजीवादियों को मिले कहाँ से? सिर्फ़ एक स्रोत की बात करें तो – उन राज्यों में जहां ऑपरेशन हॉक कार्यान्वित हुआ, 60 प्रतिशत तक खानें अवैध हैं। माओवादी आपराधिक पूँजीवादियों के खिलाफ़ लड़ रहे हैं जो राष्ट्र की खनि़ज संपदा को बीस सालों तक से लूट रहे हैं, बिना लाइसेंस के लिए अर्ज़ी तक दिए। कुछ खनिकों ने, जिन्होंने ज़रूरी आवेदन दिए थे, उन्होंने लाइसेंस प्राप्त करने को ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि वैध खनन और बैंकिग यह माँग करते हैं कि वे लोग अपने उचित बही-खाते रखें, उनके हिसाब की जाँच करवाएँ और टैक्स भरें। अगर पूँजीवादी यह करते हैं तो वे भ्रष्ट हिंदू प्रजातंत्र को वित्तीय सहायता नहीं दे सकते और न ही निजी “सुरक्षा दल” रख सकते हैं। खनन करने के लिए आपको राजनेताओं और अफ़सरों को अपनी जेब (और हरम) में रखना जो होता है।

हिंदू पूँजीवाद के खिलाफ़ माओवादियों का मामला साफ़ है: हमारे उद्योगपतियों, राजनेताओं, उनके (अ)पवित्र देवताओं और गुरुओं, और उनके सबसे योग्य, सेक्युलर, गज़टेड प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारियों ने हाथ मिला लिए हैं और आपराधिक माफ़िया बन गए हैं जिनको समर्थन मिल रहा है आधिकारिक (“स्पेशल फ़ोर्सेस”) तथा अनाधिकारिक बलों (सेलवा जुड़म) से जिन्होंने इस त्रासदिक हिंसा के वर्तमान दौर को शुरू किया है।

परंतु क्या सरकार ने इन पिछड़ी अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को शिक्षित और तैयार करने के लिए हज़ारों करोड़ो रूपये खर्च कर नहीं किए ताकि ये भी हमारी मुक्त-बाज़ार अर्थव्यवस्था में भागीदार हो सकें तथा उससे लाभान्वित हो सकें?

ब्रितानी मीडिया यह रिपोर्ट दे रहा है कि (जबकि भारतीय पूँजीवादी अपना धन स्विस खातों में छिपा रहे हैं) ब्रितानी करदाताओं ने सर्व शिक्षा अभियान के द्वारा भारत के गरीबों को शिक्षित करने के लिए 34 करोड़ पाउंड्स (लगभग 22,44,00,00,000 रूपये) दान किए हैं। इसमें से अधिकांश राशि या तो गायब हो गई है या उसका दुरुपयोग किया गया है। भारत के  महालेखा परीक्षक ने यह माना है कि कम से कम 1.4 करोड़ पाउंड की धनराशि का उपयोग उन ग्रामीण स्कूलों के लिए एयर-कंडीशनर जैसी चीज़ें खरीदने के लिए किया गया है जिनकी न तो कोई इमारत है और न ही जिनमें बिजली है। ज़ाहिर है कि बुरी तरह से निचोड़े जा रहे ब्रितानी करदाता जिन पर पहले से ही यूनान, स्पेन, इटली, पुर्तगाल, इत्यादि देशों को बचाने का बोझ है हमारी इस अनैतिक हिंदू करुणा पर क्रोधित हैं जो गरीबों के लिए आई लक्ष्मी को प्रेम करती है और अपने लिए रख लेती है। इस करदाता को खुश करने के लिए ब्रिटिश सेक्रेट्री ऑफ़ स्टेट फ़ॉर इंटरनेशनल डिवेलपमेंट, एंड्रयू मिचेल, ने यह वायदा किया है कि वे ब्रितानी उदारता के ऐसे (कम से कम) भारतीय दुरुपयोग को बिल्कुल भी सहन न करने के लिए संस्थागत कदम उठाएंगे।

लेकिन भारतीय माओवादी चीनी मार्क्सवाद का अनुसरण क्यों नहीं करते?

चीनी अर्थव्यवस्था भारत को परास्त कर रही है आंशिक तौर पर इसलिए क्योंकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने माओवाद त्याग दिया है और मसीही पूँजीवाद का सेक्युलरीकृत विकृत रूप अपना लिया। मैं चीन मामलों का विशेषज्ञ नहीं हूँ और न ही मैं किसी भारतीय माओवादी से चर्चा की है, इसलिए मैं केवल अनुमान लगा सकता हूँ कि एक माओवादी बुद्धिजीवी यह उत्तर देगा (या देगी), “चीन इसलिए समृद्ध होता जा रहा है क्योंकि वहाँ कोई निजी खनन नहीं हो रहा। सारी खनिज संपदा राष्ट्र की होती है।” (मुश्किल है ही कोई मार्क्सवादी यह माने कि चीन में “राष्ट्र” का अर्थ सत्ताधारी कुलीन वर्ग से बढ़कर शायद ही कुछ है; और यह कि चीनी “मार्क्सवादी” पूँजीवाद बमुश्किल ही अपनी गरीब जनता की सेवा कर रहा है। हालांकि उसने बेघर अमरीकियों के लिए घरों को सबसिडी ज़रूर दी थी क्योंकि सेक्युलर अमेरिका की सरकारी समर्थन प्राप्त आर्थिक उद्यम जैसे कि फ़्रैडी मैक और फ़ैनी मे ने चीनी अधिकारियों को धोखा दिया था।)

इस मुद्दे से आगे बढ़ें तो तो मार्क्सवाद की आधारभूत समस्या यह है कि यह बाइबल की विश्वदृष्टि का विकृत रूप है। आज़ादी दिलाने वाले और विधि संस्थापक यहूदी नेता मूसा को परमेश्वर ने मिस्र से ईब्रानियों को लगभग चार शताब्दियों कि गुलामी से छुड़ाने के लिए भेजा। उसके बाद उन्होंने बाइबल को लिखना आरंभ किया। अगर कार्ल मार्क्स हिंदू/बौद्ध विश्वदृष्टि से ओत-प्रोत होते तो उनके लिए इब्रानियों की गुलामी उनके कर्मों का फल होता। अगर वह मुसलमान होते तो मेहनतकश जनता की गुलामी को वह अल्लाह की मर्ज़ी कह कर स्वीकार कर लेते। वह यहूदी वंश के ईसाई थे जो ईसाई इंग्लैंड में रहते थे। इसलिए उन्होंने गरीबों के पक्ष में बाइबल के झुकाव को अपना लिया। इसके अलावा, मार्क्स की आशावादी सोच कि गुलाम “दूध और शहद की नदियों वाली भूमि” के अधिकारी होंगे, बाइबल से आती है। क्योंकि केवल बाइबल में ही सृष्टिकर्त्ता-उद्धारकर्त्ता परमेश्वर ने अपने आपको इस तौर से ज़ाहिर किया है कि वे अमानवीय सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक गुलामी के खिलाफ़ हैं। इसलिए यहूदी उस ईश्वरीय मसीहा का इंतज़ार कर रहे थे जो उनका मुक्तिदाता होगा। जब यीशु का जन्म हुआ, तो यहूदी अपने प्रतिज्ञा किए हुए मसीहा को ढूंढ़ रहे थे। उन्होंने यह कल्पना की थी कि वह परमेश्वर द्वारा भेजा गया माओवादी होगा: एक छापामार नेता जो रोमियों (अत्याचारी शासक) के खिलाफ़ लड़ेगा। यहूदी जनता यीशु के पास चंगाई और भोजन पाने के लिए और परमेश्वर के राज्य के बारे में जानने के लिए आई, परंतु वे यह विश्वास नहीं कर सके कि वह व्यक्ति जो (तलवार के स्थान पर) अपना क्रूस उठाता है वह उन्हें रोमी सेना के अत्याचार से बचा सकता है। परंतु, यह तथ्य तो यही है कि यीशु ने रोम पर विजय पाई। आज भी भारत की एकमात्र आशा है गरीबों का पक्ष लेने वाला मसीहा, एक भला चरवाहा जो अपनी भेड़ों के लिए अपने प्राण दे देता है।

भारत में, सर्वाधिक मुक्त और विकसित जनजातियाँ पूर्वोत्तर में हैं जिन्होंने यीशु का अनुसरण किया, चेयरमैन माओ का नहीं। माओवाद छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा के आदिवासियों को इसलिए अपने साथ मिला पाया क्योंकि नियोगी आयोग की रिपोर्ट का इस्तेमाल करते हुए उग्रवादी हिंदुओं और कांग्रेस पार्टी ने हाथ मिला लिए ताकि ईसाई मिशनों को खदेड़ा जाए जो उनके आदिवासी समुदायों का विकास कर रहे थे। बिना उस उद्धारकर्त्ता के जो भारत को लक्ष्मी का नहीं परंतु परमेश्वर के राज्य की खोज करना सिखाए, हमारा आर्थिक विकास हमारी तबाही बन सकता है। हमारी विशाल उत्खनन एवं औद्योगिक परियोजनाएँ दब-कुचले लोगों को शहरी झोपड़-पट्टियों में धकेल देंगी और फिर हमारी “शिक्षित” कुलीन वर्ग जो साफ़-सुथरे शहरों से प्रेम करता है उनकी बदबूदार बस्तियों पर बुलडोज़र चलवा देगा। गरीब लोग कहाँ जाएंगे?

भारतीय सेना को हमारे शहरों की रक्षा के लिए तैयारी करनी होगी

भारत में मेरे हाल के दौरे पर, जून 7 को एक बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक और उनकी पत्नी – एक मेडिकल डॉक्टर – मुझे नई दिल्ली के पास ही गुड़गाँव के एक नए खुले रेस्तराँ में डिनर के लिए ले गए। और जब मैं तेज़ी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था के आतिथ्य का आनंद ले रहा था तो मैंने अपनी मेज़बान से पूछा कि क्या जो समृद्धि मैं अपने आस-पास देख रहा था, वह गाँवों तक पहुँच रही है। वे पाँच साल पहले जापान और अमेरिका से लौटीं हैं और तब से पंद्रह गाँवों में गरीबों की सेवा कर रही हैं जो दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से बमुश्किल 30 किलोमीटर दूर  हैं। उन्होंने मुझे बताया कि जहाँ हम बैठे भोजन कर रहे थे वहाँ से दस किलोमीटर तक भी दिल्ली और गुडगाँव की समृद्धि नहीं पहुँच रही है।

तो, गरीब लोग कैसे काट रहे हैं?

“हमारे गाँव में कुछ अजीब-सा घट रहा है,” उन्होंने कहा।

“क्या?” मैंने पूछा।

“पाँच गाँव मुख्यतः मुस्लिम बहुसँख्यक हैं। छह महीने पहले वे सबसे अधिक गरीब थे, जब उनके पुरुष गायब हो गए और उनके आर्थिक हालात में सुधार आने लगा।”
“पुरुष कहाँ चले गए?”

“पाकिस्तान – उनकी पत्नियाँ मुझे ऐसा बता रही हैं। पाँच साल पहले वे सब केवल नाम के मुसलमान थे। लेकिन अब वे पक्के मुसलमान बन गए हैं क्योंकि लखनऊ से एक मौलवी आकर उनको शिक्षा दे रहे हैं। उन्होंने ही पुरुषों को पाकिस्तान में काम पाने में मदद की है।”

“क्या ये पुरुष हुनरमंद या पढ़े-लिखे हैं?”

“नहीं तो, उनमें से एक भी स्नातक नहीं है। वे तो मुश्किल से पढ़ ही पाते हैं।”

“खैर,” मैंने कहा, “अनपढ़ मुसलमान सउदी अरब या दुबई जाकर मज़दूरी करें यह बात समझ में आती है। लेकिन वहाँ काम करने के लिए उन्हें अरबी भाषा सीखनी पड़ सकती है। पाकिस्तान की कमज़ोर अर्थव्यवस्था भारतीय मज़दूरों को घर भेजने लायक पैसे कमाने के काबिल कैसे बना रही है?”

“मैं नहीं जानती,” उस भली डॉक्टर ने कहा, “मैं आपसे वही कह रही हूँ जो गाँव की औरतों ने मुझसे कही हैं।”

“मेरी यह प्रार्थना है,” मैंने जवाब दिया, “कि ये पुरुष राष्ट्रमंडल खेलों (अक्तूबर 2010 में) से पहले दिल्ली न लौटें, और न ही उस प्रकार के संसाधनों के साथ लौटें जो माओवादियों ने प्राप्त कर लिए हैं।”

क्या हिंदू पूँजीवाद को गरीब मुसलमानों के जवाब से निपटने के लिए सेना को तैयारी करनी चाहिए?

उस महिला डॉक्टर ने कहा, “यह ईस्लामिक-धार्मिक मुद्दा नहीं है। पाँच साल पहले, हिंदू भी नाम ही के हिंदू थे। लेकिन आजकल वे बहुत सारे जागरणों का आयोजन कर रहे हैं।”

माओवादी अकेले नहीं है जो इंडिया इंक के खिलाफ़ खड़े हो रहे है; अधिकांश गरीब लोग कट्टर होते जा रहे हैं चाहे वो इस्लाम के द्वारा, हिंदुत्व के द्वारा या माओवादी छापामारों के द्वारा हो।

भारत सरकार ने माओवादियों के खिलाफ़ सेना न भेजने का फ़ैसला करके अक्लमंदी का काम किया है। क्योंकि जल्दी ही दबे-कुचले लोगों से – जो आखिरकार भारत के भ्रष्ट पूँजीवाद के खिलाफ़ खडे़ हो रहे हैं – हमारे महानगरों को बचाने के लिए सेना की ज़रूरत पड़ सकती है।

(यह लेख सर्वप्रथम दिल्ली से प्रकाशित दुभाषी पत्रिका फॉरवर्ड प्रेस में प्रकाशित हुआ था। इसी श्रृंखला में लेखक के अन्य लेखों को प्राप्त करने या सब्स्क्रिप्शन के लिए पत्रिका के संपादकों से इस ई-मेल पर संपर्क करें — info@forwardmagazine.in)


[1] भारत की औद्योगिक सफलता को दर्शाने के लिए प्रयुक्त पद

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