गाँधी से राहुल – देश का नेता कैसा हो?

विशाल मंगलवादी

यह क्राँतिकारी विचार कि शासक मालिक नहीं बल्कि सेवक होता है यूरोप में तब विकसित हुआ जब उन्होंने मैकियावेली की मानसिकता का त्याग किया।

राहुल की गाँधीगिरी

21 अगस्त 2010 को कतार में लगे प्रधानमंत्री, 40 वर्षीय राहुल गाँधी ने जिस राजनीतिक समझ का परिचय दिया वह बहुत ही प्रभावशाली था। मूसलाधार बरसात में 110 किलोमीटर गाड़ी चला कर वे उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने अचानक अवतरित हुए। ये किसान असंतुष्ट थे क्योंकि यूपी की सरकार उनकी रोज़ी-रोटी के एकमात्र साधन – उनकी उपजाऊ ज़मीनों – का अधिग्रहण कर रही थी। सरकार 165 किमी लंबे यमुना एक्सप्रेसवे के निर्माण की योजना बना रही है ताकि नौएडा से आगरा (ताजमहल) की दूरी को 90 मिनटों में पूरा किया जा सके। किसान कमतर और असमान मुआवज़े को लेकर नाराज़ हैं – वे जीविका के अपने पुश्तैनी स्रोत को खो देंगे, लेकिन जबतक उन्हें रोज़ी-रोटी के नए साधन मिलें तबतक की बीच की मियाद के लिए यह मुआवज़ा उनके लिए पूरा नहीं पड़ेगा। यह सड़क पर्यटन, व्यापार और उद्योग को बढ़ावा देगी, लेकिन फ़ायदा उन्हीं को होगा जिनके पास संसाधन हैं। जो पहले से ही गरीब हैं वे अपनी रोज़ी-रोटी के साधन ही खो देंगे।

उत्तर प्रदेश के किसान सरकार से खफ़ा हैं

अजीत सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के एकमात्र समर्थक बनकर उभरते, उससे पहले ही राहुल ने कुछ श्रेय अपने नाम करके मीडिया और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को हैरत में डाल दिया। और साथ ही जब वह पुलिस फ़ायरिंग में मारे गए दो निर्दोष दलितों के परिवारों से मिलने गए तो मुख्यमंत्री मायावती के दलित आधार में कुछ चोट भी पहुँचा आए।

इससे पहले राहुल और उनकी माँ, श्रीमती सोनिया गाँधी – सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की चौथी बार बनी शक्तिशाली अध्यक्ष – ने ओड़िशा के आदिवासियों का पक्ष लिया था जो (माओवादियों के समर्थन से) बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता द्वारा उत्खनन के लिए अपनी ज़मीनों के अधिग्रहण करने की कोशिशों का विरोध कर रहे थे। आधुनिक विकास के शिकार लोगों का समर्थन करने के द्वारा राहुल यह सुनिश्चित कर रहे थे कि जब उनकी प्रधानमंत्री मनमोहन के नेतृत्व वाली सरकार नए भूमि अधिग्रहण कानून को पास करेगी तो वह उन्हें चुनावों में कोई नुकसान न पहुँचा पाए। वह यह उम्मीद कर रहे हैं जब गरीबों को उनकी ज़मीनों को छोड़ने के लिए मजबूर कर ही दिया  जाएगा तो पर्यावरण संरक्षक और वैश्विक मीडिया उन्हें सकारात्मक ढंग से पेश करें।

राहुल गाँधी एक सार्वजनिक हस्ती हैं जिनके निजी विचार और नीतियाँ अभी भी रहस्य बनी हुई हैं। संभावना के तौर पर वे हमारे राष्ट्रीय जीवन के अगले तीन दशकों को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए उनके मन के राज़ की पड़ताल करना दिलचस्प होगा।

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देश का नेता कैसा हो?

कल्पना करें कि यूपी से अपनी विजयी दौरे से वापिस आते हुए राहुल महात्मा गाँधी की ताज़ा जीवनी के कुछ पन्ने पढ़ रहे हैं, लेकिन उन्होंने पाया कि वह बहुत थक चुके हैं। इसलिए उन्होंने यह देखने के लिए टीवी चलाया कि मीडिया उनके दौरे को कैसे कवर कर रही है। जिस चीज़ को देखकर वह सबसे ज़्यादा खुश हुए वह उनके अनुयायियों का यह राग – “ देश का नेता कैसा हो? राहुल गाँधी जैसा हो।” लेकिन जब उन्होंने चैनल बदला तो उत्तर प्रदेश के एक अन्य हिस्से में हो रही घटना को देखकर झुँझला गए। मायावती अपने गुरु काँशीराम के एक बुत का अनावरण कर रही थीं और एक दूसरी तथा अत्यधिक बड़ी भीड़ यह नारा लगा रही थी “देश का नेता कैसा हो? मायावती जैसा हो।”

उनींदे राहुल ने जीवनी, जो अभी भी उनके हाथ में थी, के आवरण पृष्ठ पर बापू के चित्र को एकटक देखते हुए एक गहरी साँस ली और महात्मा से बुदबुदाते हुए पूछा:

देश का नेता कैसा हो, बापू!

भारत को किस प्रकार के नेता या अगुवे की ज़रूरत है?

नींद में जाते हुए उन्होंने महसूस किया जैसे बापू की मुस्कान जीवंत हो रही है। बल्कि बापू का प्रेत किताब से निकल के आ रहा है और उनके बिस्तर पर बैठ गया। और एक ऐसी करुणामय दृष्टि के साथ जो एक दादा अपनी बाँहों में सोते बच्चे पर डालता है राहुल कि ओर देखा।

बेटा, बापू ने कहा, तुम महान पैदा हुए, मायावती ने महानता अर्जित की और महानता तुम्हारी माँ पर थोप दी गई। उन्होंने अपनी ताकत को कमोबेश समझदारी से इस्तेमाल किया है। मायावती और तुम अपनी ताकत के साथ क्या करोगे यह देखना अभी बाकी है। भारत में तुम्हारा अधिकांश योगदान ऐसी परिस्थितियों में होगा जिनपर तुम्हारा कोई वश नहीं, लेकिन इतिहास मायावती और तुम्हें उन चुनावों के आधार पर आँकेगा जो तुम करोगे। तुम्हारे निजी और सार्वजनिक फ़ैसले तुम्हारे भीतरी चरित्र की ताकत या कमज़ोरी को दर्शाएँगे।

लेकिन मायावती भ्रष्टाचार में इतनी लिप्त है! राहुल को अपने आप को उसी श्रेणी में रखा जाना पसंद नहीं आया।

दुर्भाग्यवश, महात्मा ने कोमल स्वर में कहा, सच्चाई यही है कि अगर तुम्हारे परिवार को यह श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने भारत माता को एक प्रजातंत्र के रूप में बचाए रखा है, तो उसे भारत के सार्वजनिक जीवन के नैतिक पतन का दोष भी स्वीकार करना होगा।

क्या आप सचमुच ऐसा सोचते हैं कि मेरा परिवार भारत के एक सफल प्रजातंत्र बने रहने की कुंजी है? राहुल ने बातचीत को एक खुशनुमा मोड़ देने की कोशिश की।

बेशक! महात्मा ने कुछ टेढ़ी मुस्कान के साथ कहा। जो “विचारधाराएँ” हमारी दो-गठबंधन प्रणाली को परिभाषित करती हैं वह सत्तारूढ़ वंश के लिए निष्ठा या नफ़रत ही हैं। इसके अलावा हमारा राजनीतिक वर्ग सत्ता के लालच के अलावा किसी और चीज़ से प्रेरित नहीं है।

क्या राजनीति मात्र सत्ता के लिए नहीं?

लेकिन क्या राजनीति केवल सत्ता ही के लिए नहीं होता उसे पाने और फिर बरकरार रखने के लिए?

मैकियावली ने अपनी पुस्तक द प्रिंस में यही सीख दी थी। एक इतालवी कूटनीतिज्ञ होने के नाते वह 15वीं सदी के कई यूरोपियाई शासकों का अध्ययन करने के योग्य थे, उनका भी जो सफल थे और उनका भी जिन्होंने सत्ता गवाँ दी। उन्होंने प्राचीन शासकों और राजनीति शास्त्रियों का भी अध्ययन किया और ऐसी राजनीति का सबक दिया जो हम अपने खुद के चाणक्य से सीख सकते थे। हमारे शासक राजनीतिक सत्ता पाने और बरकरार रखने की कला में माहिर थे। बेटे तख्त पाने के लिए नियमित तौर पर अपने पिताओं और भाइयों का कत्ल करते थे। कैकयी भी राम को वनवास में भेजने और अपने बेटे को अयोध्या का राजा बनाने में सफल हुई थी। त्रासदी तो यही है कि तुम्हारे वंशावादी शासन के दौरान, हालाँकि उसके कारण नहीं, भारतीय राजनीति का अपनी पारंपरिक, मैकियावलीवादी समझ में पतन होता जा रहा जिसके अनुसार राजनीति केवल सत्ता है और सिद्धांत केवल सत्ता को पाने के साधन।

लेकिन अगर सत्ता नहीं तो फिर राजनीति किस बाबत की जाए?

मुझे यकीन है कि तुमने अपने पड़दादा के भाषण सुने होंगे। जवाहर ने कभी भी राष्ट्र को यह सिखाने का मौका नहीं गँवाया कि वह उनका पहला सेवक है – क्योंकि अँग्रेज़ी शब्द प्राइम मिनिस्टर का शाब्दिक अर्थ यही है।

यह क्राँतिकारी विचार कि एक शासक को सेवक होना चाहिए यूरोप में तब विकसित हो पाया जब उन्होंने मैकियावली की मानसिकता का त्याग कर दिया। फ़्राँस के ह्यूगनॉट्स से  शुरू करके, स्कॉटिश, अँग्रेज़ और डच सुधारकों ने यह पूछना आरंभ किया – ईश्वर किस तरह के शासक चाहते हैं? उन्होंने इस सवाल के साथ बाइबल को पढ़ना शुरू किया क्योंकि उनका यह विश्वास था (बाकि बातों के अलावा) कि बाइबल यहूदी और विश्व इतिहास पर ईश्वर का दृष्टिकोण है। जब उन्होंने ईश्वर के दृष्टिकोण से राजनीति को सीखने का फ़ैसला किया तो उन्होंने यह समझना शुरू किया कि यीशु मसीह और उनकी शिक्षा कि धर्मभ्रष्ट शासक, यूरोपीय भी, अपनी प्रजा पर प्रभुत्व जमाते हैं। लेकिन ईश्वर एक नए राज्य का आगाज़ कर रहे थे जिसमें जो भी महान बनना चाहता है उसे सेवक बनना होगा। यीशु ने कहा कि हालाँकि वे यहूदी मसीहा हैं, वह सेवा करवाने नहीं बल्कि सेवा करने और दूसरों की मुक्ति के लिए अपना जीवन देने आए हैं। इसीलिए क्रूस (सलीब) जिसपर उन्होंने अपने प्राण दिए आत्मबलिदानी सेवा का सबसे सशक्त बैश्विक प्रतीक बन गई।

जवाहर एक इतिहासकार था और वह सौभाग्यशाली था कि इंग्लैंड में वह अगुवाई (नेतृत्त्व) और शासन पर बाइबल की सीख की सुंदरता देख पाया। उसकी गलती यह थी कि उसने यह सोच लिया कि राजनीति को सच्ची रुहानियत से अलग किया जा सकता है। उसने सोचा कि ईश्वररहित सेकुलरावादी सेवक-अगुवे पर मसीह की शिक्षा के राजनीतिक पहलु पर अमल कर पाएँगे। लेकिन सच्चाई यह है कि यीशु की सीख अभी भी हमारी सँस्कृति में अनजानी है। मैकायवली के बाद यूरोप के कई राष्ट्रों ने राजनीति की ‘यथार्थवादी’ समझ को खारिज कर दिया और एक एशियाई किताब – बाइबल – को राजनीति को परिभाषित करने की अनुमति दी। हम दूसरी सँस्कृति से सीखने के मामले में बहुत ही घमंडी रहे हैं, इसलिए चाहे हमने ब्रितानी लोकतंत्र को अपना लिया है, हमने उस रुहानियत के प्रति अपने दिलों को बंद कर लिया है जिसके आधुनिक प्रजातंत्र सुचारु रूप से काम करता है। तुम क्या सोचते हो कि अगर किसी दुर्घटनावश तुम्हारे परिवार को हटा दिया जाए तो भारतीय प्रजातंत्र का क्या होगा?

कांग्रेस पार्टी तो निश्चित रूप से टुकड़े-टुकड़े हो जाएगी।

साथ ही कांग्रेस पार्टी का विरोध भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। दो-गठबंधन की प्रणाली कुछ स्थिरता दी है और प्रजातांत्रिक सफलता का एक वहम निर्मित किया है वह ध्वस्त हो जाएगी। वह  प्रजातंत्र कितना मज़बूत हो सकता है जो अपने जिंदा रहने के लिए एक वंश पर निर्भर करता है? हिंदुत्व पार्टी ने कुछ ठीक काम किए हैं, लेकिन उसमें इस नम्रता की कमी है कि वह यह मान ले कि जिस प्रकार यूरोप में धर्मसुधार, रेफ़रमेशन, की आवश्यकता थी, वैसी भारत में भी है। सच्ची सफलता के लिए, भारतीय प्रजातंत्र को परिवर्तन की आवश्यकता न कि उसकी अनैतिक सँस्कृति को बचाए रखने की। तुम इस बात के लिए आभारी हो सकते हो कि तुम्हारे परिवार ने एक भूमिका अदा की है, लेकिन तुम्हें भारत को असल में बदलने के लिए भीतर के  अति विशाल रुहानी संसाधनों की आवश्यकता है।

बापू! मेरे कई शिक्षक यह कहते हैं कि पंडितजी ने पूरे तौर पर आपका अनुकरण नहीं किया क्योंकि उन्हें लगता था आपके आदर्शवाद की कुछ बातें सनकभरी हैं।

जवाहर ने मेरी सभी बातें नहीं मानी

वह सही कहते हैं और जवाहर भी। मैंने कई सनकभरी बातें सोची और कई मूर्खतापूर्ण कार्य किए। इसलिए कोई सनकी ही मेरी कही और की गई हर बात का पूरी तरह से अनुकरण करेगा। लेकिन तुम्हारे समझदार संशयवादी पड़दादा ने मेरा अनुकरण किया, हर चीज़ का त्याग किया, कई वर्ष जेल में बिताए और राष्ट्र के लिए जान देने को तैयार हुए क्योंकि वे जानते थे कि न तो मैं और न ही कांग्रेस पार्टी जिसकी अगुवाई मैं करता था भ्रष्ट हैं। मिशनिरियों के कारण, हमारे चरित्र को मैकायवली, चाणक्य और भारतीय देवी-देवताओं ने नहीं बल्कि बाइबल ने आकार दिया था। और यही बात तब की और आज की कांग्रेस पार्टी के फ़र्क को बयान करती है।

मायावती ने महानता अर्जित की है

आप एक वकील के तौर पर प्रशिक्षित हुए थे, इसलिए मैं तो आपसे बहस करने की कोशिश भी नहीं कर सकता। खैर, भारत के नैतिक पतन के बारे में आपकी टिप्पणियाँ बदकिस्मती से सच ही हैं। मायावती के नीचे आज यूपी सरकार जितनी भ्रष्ट है पहले कभी नहीं रही और देखो उस चैनल पर हमारे लोग यही राग अलाप रहे हैं “देश का नेता कैसा हो? मायावती जैसा हो।”

यह जीतने और हारने का मसला नहीं है। सवाल यह है क्या तुम मायावती से अधिक चतुर राजनीतिज्ञ बनना चाहते हो या गुणत्ता के हिसाब से अलग और बेहतर?

आप कहना क्या चाहते हैं?

आज यूपी में जो नाटक तुमने खेला वह काबिलेतारीफ़ था। तुम मायावती, मुलायम और अजीत को मात दे सकते हो। उससे तुम प्रधानमंत्री बन जाओगे, लेकिन यह भारत को नहीं बदल पाएगा।

राहुल से गाँधी: सेवक-अगुवाई पर अमल कर के देखो

तो, आपका क्या लगता है मुझे क्या करना चाहिए?

क्या तुम वाकई मुझ से सलाह चाहते हो?

बेशक। मैं जानना चाहता हूँ कि भारत का नेता या अगुवा किस तरह का होना चाहिए।

तुम मुश्किल में पढ़ जाओगे, बेटा। लेकिन क्योंकि तुम पूछ रहे हो, मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम भारत को बदलने के लिए क्या कर सकते हो। अगर तुम्हें वाकई यूपी में व्याप्त भ्रष्टाचार, प्रदूषण और गरीबी की परवाह है तो मतदाताओं से आवेदन करो कि वे तुम्हें यूपी के मुख्यसेवक के रूप में नियुक्त करें।

यह तो सनकभरा विचार है। हमारी पार्टी यूपी में कैसे जीत सकती है? हम चौथे पायदान पर हैं बसपा, सपा और भाजपा के पीछे।

तुम बिना लड़े ही यूपी को जीत सकते हो। अपने आप को नम्र बनाओ। मायावती को एक ईमानदार, सार्वजनिक प्रस्ताव दो कि उन्हें भारत की अगली प्रधानमंत्री बनने में जो बन पड़ेगा तुम करोगो। उसके बदले तुम यूपी का मुख्यसेवक बनने के लिए उनकी सहायता माँगो। उनसे कहो कि तुम यूपी विधानसभा के लिए सर्वोत्तम प्रत्याशियों को चुनोगे, बिना उनकी जाति और मौजूदा पार्टी संबंधों पर ध्यान दिए। वह तुम्हारे और तुम्हारी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करे और तुम राष्ट्रीय चुनावों के दौरान उनके लिए प्रचार करो। उनसे और यूपी की जनता से कहो कि आप चाहते हैं कि यूपी आपको सिखाए कि शासन कैसे करना है। जब तुम यूपी में अपने आपको साबित कर चुके होगे तो फिर राष्ट्र से कह सकते हो कि वह तुम्हें अपने पहले सेवक के रूप में सेवा करने का अवसर दे।

बापू आप जानते हैं, कि कांग्रेस पार्टी कभी भी मुझे यूपी का मुख्यमंत्री बनने की अनुमति नहीं देगी। अगर मैं वहाँ असफल हो गया तो यह सारी पार्टी को नुकसान पहुँचाएगा।

तुम कांग्रेस पार्टी के अनुयायी हो या अगुवे? क्या तुम राजनीति में अपनी पार्टी के सदस्यों के हितों की सेवा के लिए आए हो? यूपी को साफ़ करने की ज़िम्मेवारी लेकर, तुम खेल बदल सकते हो, एक ऐसे राजनीतिज्ञ के रूप में जो मायावती ही नहीं बल्कि तुम्हारे अपने पिता और दादी से भी अलग है। एक ही चोट से तुम अपने वोट बैंक भी वापिस पा लोगे, जिनमें दलित भी शामिल हैं, जिन्हें कांग्रेस के पाखंड के कारण खोना पड़ा था।

(फॉरवर्ड प्रेस के अक्तूबर 2010 अंक में प्रकाशित)

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